friends, i received this as a forwarded post from a member in another forum where i am a member. Though it is that of a gujarati who has settled in us, i think many of our members will be able to identify themselves with the dilemma of the author of the poem. So i present this here: The nri poem .... ना इधर के रहे .... ना उधर के रहे - by an abcd (american born confused desi, most probably a gujju). ना इधर के रहे , ना उधर के रहे, बिच में लटकते रहे ना india को भुला सके, ना america अपना सके इंडियन अमेरिकन बन के काम चलाते रहे ना गुजराती को छोड़ सके ना अंग्रेजी को पकड़ सके देसी accent में गोरो को confuse करते रहे ना turkey को पका सके ना ग्रेवी बना सके मुर्गी को दम देके thanks giving मनाते रहे ना christmas tree बना सके ना बच्चो को समजा सके दिवाली पर santa बनके तोहफे बाँटते रहे ना shorts पहेन सके ना सलवार कमीज़ छोड़ सके jeans पर कुरता और स्नीकर्स पहेन कर इतराते रहे ना नाश्ते में donut खा सके ना खिचड़ी कढी को भुला सके pizza पर मिर्च छिड़ककर मज़ा लेते रहे ना गरमी को भुला सके ना snow को अपना सके खिड़की से सूरज को देखकर beautiful day कहेते रहे अब आयी बारी baroda जाने की तो हाथ में पानी का शीशा लेकर चलते रहे लेकिन वहां पर............. ना भेल पूरी खा सके ना लस्सी पी सके पेट के दर्द से तड़पते रहे हरड़े और एसबगुल से काम चलाते रहे ना मच्छर से भाग सके ना खुजली को रोक सके cream से दर्दो को छुपाते रहे ना फकीरों से भाग सके ना dollar को छुपा सके नोकरो से पीछा छुड़ाकर भागते रहे ना इधर के रहे ना उधर के रहे कमबख्त कही के ना रहे बस "abcd " औलाद को और confuse बनाते रहे *